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वाराणसी: प्रतिरोध के मोनोटोनस स्वर के विरोध में ‘शान्ति पर्व’ का आगमन हुआ है- कथाकार प्रो. काशीनाथ सिंह

वाराणसी। सम्बोधि सभागार (समता भवन), सामाजिक विज्ञान संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के तत्वावधान एवं प्रो. मनोज कुमार सिंह,प्रो. प्रभाकर सिंह और डॉ. महेंद्र प्रसाद कुशवाहा के संयोजकत्व में समकालीन प्रगतिशील कवि एवं आलोचक प्रो. आशीष त्रिपाठी के काव्य संग्रह ‘शान्ति पर्व’ पर परिसंवाद का आयोजन किया गया। अलका और समाहिता ने कुलगीत गाया। स्वागत वक्तव्य देते हुए भोजपुरी अध्ययन केंद्र के समन्वयक प्रो. प्रभाकर सिंह ने बताया ‘शान्ति पर्व’ कविता संग्रह में हमारे समय और समाज का सभ्यता विमर्श मौजूद है, इसमें जीवन का यथार्थ है। यह संग्रह प्रेम की संस्कृति को रचने की कवायद करता है। मान्यवर कवि राजेश जोशी ने ठीक कहा है कि आशीष त्रिपाठी का कवि अपने आलोचनात्मक विवेक के साथ उपस्थित होता है। परिसंवाद की अध्यक्षता कर रही सामाजिक विज्ञान संकाय प्रमुख प्रो. बिंदा परांजपे ने कहा कि ‘शान्ति पर्व’ कविता संग्रह के बिंबों का स्वरूप वैश्विक है, इसके बिंबों का अपना रिदम है। इस संग्रह में संकलित कविता के कुछ शब्द घोषित वाक्य की भांति है। जाने-माने कथाकार ‘काशी का अस्सी’ और ‘रेहन पर रग्घू’ जैसे लोकप्रिय उपन्यास के लेखक काशीनाथ सिंह जी उन्होंने बताया कि मेरे तीन ही प्रिय कवि रहें हैं जिन्हें मैंने पढ़ा ‘धूमिल’, ‘राजेश जोशी’ और ‘अरुण कमल’। विमर्शों से पूर्ण कविता में फॉर्मूला तो बढ़ता गया और कविता के तत्व घटते गए। “प्रतिरोध के मोनोटोनस स्वर के विरोध में ‘शान्ति पर्व’ का आगमन हुआ है। इस संग्रह के तीसरे खंड में कवि का निजी जीवन है, इस खंड में नाटकीयता है, संवाद है, कथात्मकता है और अनछुए बिंब भी हैं। कलियुग खंड को अलग संकलन की जरूरत है, यह खंड इस संकलन में कोहरे और प्रदूषण की तरह है। “शांति पर्व” संग्रह न केवल कवि आशीष की अपितु आज की कविता का डिपार्चर है। बतौर मुख्य अतिथि समकालीन प्रगतिशील वरिष्ठ कवि एवं आलोचक प्रो. अरुण कमल ने कहा कि आज के कवि, कल के कवि और आने वाले दशकों के कवि हैं आशीष त्रिपाठी। आशीष त्रिपाठी के पिता सेवराम त्रिपाठी जो बहुत अच्छी कविताएँ लिखते थे, मेरे दोस्त थे, आज आशीष मेरे दोस्त हैं और बिटिया साखी भी दोस्त बन चुकी है। इनके पहले खंड की लगभग हर कविता में आत्मा है, जो चराचर जगत है वह भी मानता है कि आत्मा है। गोरखनाथ ने लिखा है कि अन्न को भी भूख लगती है और पानी को प्यास। कविता के पास हम भावों के लिए जाते हैं, कविता ऐन्द्रिक होनी चाहिए, आकांक्षा ने ठीक ही कहा कि जहाँ भी दर्द होता है वहाँ आत्मा है, ऐसा कहकर उसने आत्मा को भौतिक रूप प्रदान कर दिया। बरसात कविता की बिंबधर्मिता पर बात रखते हुए कहा कि इस कविता के बिंबों में स्थिरता और गति का अद्भुत संयोजन है; “आम के पेड़ बने रहते हैं स्थिर, बस यूँ ही कभी-कभी पलकों की तरह हिलती हैं उनकी पत्तियाँ’। ‘पटकी हुई थाली’ कविता स्त्री की कविता है जो प्रतिरोध का बिंब उपस्थित करती है।

‘पटकी है आज यूँ इस तरह यह थाली

सब वैसा ही तो है, जैसा रहता है बरसों से,

जब से आई है घर में यह औरत। इस संग्रह में कुछ ऐन्द्रिक बिंब है और कुछ ऐन्द्रिकता को पार करते हुए बिंब भी हैं। मुख्य वक्ता के रूप में प्रो. अवधेश प्रधान ने कहा कि ‘कनसुरापन’ शब्द का प्रयोग भाई शमशेर ने किया था, कानों के भीतर भी कानें हैं जो सुनती हैं ध्वनियाँ। ध्वनियों की बारीक पकड़ इस संग्रह इस संग्रह में दिखाई देती है। गाय अपने बछड़े के लिए रंभाती है। बछड़े के प्रति गाय की संवेदना को रंभाना शब्द ही व्यक्त कर सकता है उसका कोई सप्लीमेंट नहीं हो सकता है। किसी भी भाषा की आत्मा का वास्तविक प्रतिनिधित्व कविता करती है। ‘रंगसाज की रसोई’अरुण कमल की सद्य प्रकाशित कविता संग्रह है, इस पर भी बात होनी चाहिए। कविता ने हिंदी भाषा को बहुत समृद्ध किया है। आजकल विमर्शों ने इतना कहा कि ‘बोलत-बोलत तत्त नसाय’ गया। अरुण कमल और आशीष त्रिपाठी की कविता में शोर बहुत नहीं है। संकेतों में बात है, नारेबाजी नहीं है। धूमिल ने कहा था कि शब्दों को खोलकर बोलना, टटोलकर बोलना। कार्ल मार्क्स ने कहा था कि कविता मनुष्यता की मातृभाषा है। उदय रागी की कविता है, ‘रंग सूरज का काला हो रहा है, वहाँ लोग चाँद को छू रहे है, यहाँ मस्जिद शिवाला हो रहा है। सोवियत के सूर्य से आशा थी लेकिन काले सूर्य से कोई आशा नहीं है। ‘कलियुग’ कविता में हम बात भूतकाल में कही जा रही है, यह सब पहले के कलियुग की बात है, अभी तो सतयुग चल रहा है, यह कितना बड़ा व्यंग्य है। आज जो कुछ हमारे सामने है उसका अतीत होता ही है, बीते कल, वर्तमान और भविष्य को अद्भुत शैली में पिरोना एक ख़ास ढंग है जो आशीष की कविता में मिलती है। कथा साहित्य के विशेषज्ञ प्रो. नीरज खरे  “शान्ति पर्व” पर अपनी बात रखते हुए कहते हैं कविता के साथ विचार का घनत्व इस संग्रह में सघन होता जाता है। राजनीतिक माहौल को परिवेश को इस संग्रह में जज़्ब किया गया है। मीडिया आज समकाल को मज़ाक की भांति प्रस्तुत कर रहा है। कवि के पास अतीत और पुरखों की गहन स्मृतियाँ हैं। ‘पुरवा’ कविता में बीते हुए समय का सांस्कृतिक बोध है। कवि और कविता के लिए स्मृति बहुत महत्वपूर्ण है। आशीष जी की कविता का चबूतरा बहुत विस्तृत है। प्रो. मनोज सिंह बताते हैं कि आशीष त्रिपाठी के भीतर कवि का निडर मन है, संवादी मन है। वे हमारे भाषिक परम्परा के सजग और युवा कवि हैं। आशीष जी को मैं मुक्तिबोधीय स्कूल का कवि मानता हूँ। मुक्तिबोध की कविता जो एक चीज़ प्रस्तावित करती है वह है आत्मसंघर्ष। यह एक ईमानदार जीवन से आता है, जब आपका ईमानदार मन हमेशा हस्तक्षेप करता है तब आप उसे अपनी कला में उतारते हैं। वे मार्क्सवाद के ट्रेडिशनल स्कूल का भी क्रिटिक प्रस्तुत करते हैं। एक हिंदुस्तान उनके समय कंस्ट्रक्ट किया जा रहा है, इसलिए कवि कविता में ठेठ हिन्दुस्तान की बात कर रहा है। युवा प्रगतिशील आलोचक डॉ. विंध्याचल यादव ने कहा कि शान्ति पर्व के परत के भीतर भावना, राजनीति और सभ्यता के स्तर पर कई तरह के भूस्खलन हो रहे हैं। इस शीर्षक में गहरे व्यंग्य के साथ उदासी भी है। जहाँ इसका पहला खंड रागात्मक जुड़ाव बनाती है, हार्दिक संवाद करती है वहीं अंतिम खंड बौद्धिक संवाद पर ख़त्म होता है और इन दो खंडों के बीच में राजनीति और स्त्री है। पुनरुत्थानवादी शक्तियाँ जब पुनः दबदबा क़ायम कर रही हो, यह संग्रह आंतरिक सभ्यता की ध्वनि पैदा करता है। संप्रदायी और दक्षिणपंथी शक्तियों के सांप्रदायिक उभार का दौर है। इंडियन डेमोक्रेसी से हिंदी साहित्य के संवाद की एक पूरी परंपरा रही है। यह संग्रह हिंदी भाषा के क्षेत्र से गवाही प्रस्तुत करने वाली संग्रह है यह ‘शान्ति पर्व’। यह शक्तियों के पुनर्विजय और उभार का दौर है। आज जो लोकतंत्र विरोधी शक्तियाँ पैदा हुई है उसके विरोध में यह संग्रह खड़ा होता है। ‘राष्ट्रीय स्वयं सेवा संघ’ के वार्तालाप में जो एक ख़ास तरह के ओबीडियंट सोसायटी की संरचना खड़ी हो रही है उसको ‘काला सूर्य’ कविता प्रश्नांकित करती है। ब्राह्मणवाद राष्ट्रवाद और सांप्रदायिक शक्तियों की खोल है। इस कविता में ‘श्वेत ऋषि’ और युवा प्रगतिशील आलोचक डॉ. विंध्याचल यादव ने कहा कि शान्ति पर्व के परत के भीतर भावना, राजनीति और सभ्यता के स्तर पर कई तरह के भूस्खलन हो रहे हैं। इस शीर्षक में गहरे व्यंग्य के साथ उदासी भी है। जहाँ इसका पहला खंड रागात्मक जुड़ाव बनाती है, हार्दिक संवाद करती है वहीं अंतिम खंड बौद्धिक संवाद पर ख़त्म होता है और इन दो खंडों के बीच में राजनीति और स्त्री है। पुनरुत्थानवादी शक्तियाँ जब पुनः दबदबा क़ायम कर रही हो, यह संग्रह आंतरिक सभ्यता की ध्वनि पैदा करता है। संप्रदायी और दक्षिणपंथी शक्तियों के सांप्रदायिक उभार का दौर है। इंडियन डेमोक्रेसी से हिंदी साहित्य के संवाद की एक पूरी परंपरा रही है। यह संग्रह हिंदी भाषा के क्षेत्र से गवाही प्रस्तुत करने वाली संग्रह है यह ‘शान्ति पर्व’। यह शक्तियों के पुनर्विजय और उभार का दौर है। आज जो लोकतंत्र विरोधी शक्तियाँ पैदा हुई है उसके विरोध में यह संग्रह खड़ा होता है। ‘राष्ट्रीय स्वयं सेवा संघ’ के वार्तालाप में जो एक ख़ास तरह के ओबीडियंट सोसायटी की संरचना खड़ी हो रही है उसको ‘काला सूर्य’ कविता प्रश्नांकित करती है। ब्राह्मणवाद राष्ट्रवाद और सांप्रदायिक शक्तियों की खोल है। इस कविता में ‘श्वेत ऋषि’ और ‘अश्वेत ऋषि’ टर्म का प्रयोग है। यह कविता प्रगतिशील शक्तियों के हताशा की ओर भी इंगित कर रहा है। यह संग्रह स्वयं के विरुद्ध भी खड़ी है। उजले ऋषि उदारवादी, कांग्रेसी, मार्क्सवादी और विमर्शी आ जाएंगे और जो अश्वेत ऋषि है उसमें दक्षिणपंथी हैं, पुरातनवादी, पुनरुत्थानवादी है। उजले ऋषियों को अघोरी बार बार आगाह कर रहे हैं। उजले ऋषियों को अपने उजाले पर भरोसा है कि वे अंधेरे के ग़फलत में नहीं पड़ें। काला सूर्य कविता में ‘अघोरी’ कौन है इस पर बात होनी चाहिए। ‘अघोरी’ बहुजन समाज के लोग हैं। भारतीय लोकतंत्र में हुए बदलाव के रेशे-रेशे को उधेड़ती है यह संग्रह। स्त्री साहित्य एवं लेखन में विशेष रुचि रखने वाली शोधार्थी सुश्री आकांक्षा मिश्रा बताती हैं कि ‘शान्ति पर्व’ काव्य संग्रह में शान्ति नहीं वर्तमान समय की कसक मौजूद है। कवि उन दर्द वाली जगहों पर अपनी आत्मा को लेकर जाता है; जहाँ दर्द महसूस होता है। आत्मा एक अमूर्त विषय है जो दिखाई नहीं देती; कविता भी अमूर्तन की प्रक्रिया से गुजरती है। ‘सिंदूर की डिबिया’ कविता उस व्यवस्था को दिखाती है जो स्त्री को बांधती है। कवि ने भाषा के संदर्भ में अपनी स्थानीयता को बचाए रखा है। ‘सरलता का दुहराव कितना कठिन है , पर कितना जादुई है उसका स्पर्श’ परिसंवाद का संचालन दलित साहित्य के विशेषज्ञ डॉ. रवि शंकर सोनकर कर रहे थे। काव्य पाठ ‘शान्ति पर्व’ के प्रणेता प्रो. आशीष त्रिपाठी ने किया। उन्होंने कहा कि श्रद्धा यदि संलग्नता के साथ हो तो उसमें प्रेम समाहित होता है। मेरे लिए यह कविता संग्रह मेरे पुनर्जन्म की तरह है। एक कवि की आत्मा में उसका समाज, उसकी संस्कृति वैसी ही होती है जैसे सतह के भीतर पृथ्वी। उन्होंने ‘उनके होने से’ (कोविड तालाबंदी में ख़ाली कक्षाओं से गुजरते हुए) और ‘कलियुग’ कविता का पाठ किया।

“ये जगहें सिर्फ़ उनके होने से धरती की तीर्थ हैं,

वे हैं तो गिरेगा एक दिन

सबसे ताक़तवर ज़मीनी देवता का

सबसे सुरक्षित

हज़ार परकोटों वाला महल”

‘कलियुग’

“लोकतंत्र में संख्याबल ही एकमात्र कसौटी था,

राजनीतिक परिवारवाद जायदाद

जाति और धर्म

मरी हुई खाल पर चिपके आभूषण

प्रवचन उद्योग सबसे बड़ा उद्योग

कुछ ख़ास संगठनों की सदस्यता देश प्रेम

कुछ ख़ास कंपनियों का सामान ख़रीदना नागरिक ज़िम्मेदारी

जनता को मुफ़्तखोंर बनाने के लिए लखमुखी योजनाएँ।

धन्यवाद ज्ञापन हिंदी विभाग के सहायक आचार्य डॉ. महेंद्र प्रसाद कुशवाहा ने किया।

 

 

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