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ब्राह्मणों के सम्‍मान की रक्षा का नारा देकर चिल्‍लूपार से पहली बार विधायक बने थे हरिशंकर तिवारी  

शिवकुमार

गोरखपुर। 1985 के विधानसभा चुनाव की घोषणा हो गई. तब चिल्लूपार के 3 बार से विधायक हुआ करते थे भृगुनाथ चतुर्वेदी. इमानदार इतने की आखिरी दिनों तक बस में चले. कभी गनर भी साथ नहीं रखते लेकिन पब्लिक उन्हें पागलों की तरह चाहती.  कहा जाता है कि अपने दिनों में भृगुनाथ ने हरिशंकर तिवारी को कांग्रेस में पानी नहीं पीने दिया. लेकिन हरिशंकर तिवारी जानते थे कि इलाका जीतना है तो बाबा का आशीर्वाद जरूरी है. चिल्लूपार से ही सटा एक कस्बा है बड़हलगंज, वहां प्रैक्टिस करते थे डॉक्टर मुरलीधर दुबे. दुबे को चतुर्वेदी का राजनैतिक वारिस माना जाता था. लेकिन 1980 में दुबे की हत्या हो गई. आरोप आजमगढ़ के एक राजपूत पर लगा. यहीं से भृगुनाथ चतुर्वेदी को अहसास हो गया कि अपनी जाति का संरक्षण करना है तो बाहुबल भी जरूरी है. हरिशंकर तिवारी उन्हें समझाने में सफल रहे कि ‘अपनों के लिए लड़ना पड़ता है’. गोरखपुर के ही एक बड़े दलित नेता थे महावीर प्रसाद जो हाईकमान तक यह बात पहुंचा चुके थे कि तिवारी को टिकट देने से पार्टी की छवि खराब होगी. लेकिन हालात ऐसे बने कि भृगुनाथ चतुर्वेदी ने हरिशंकर को अगला विधायक बनाने की ठान ली. उन्होंने एन वक्त पर कांग्रेस छोड़ दी और चौधरी चरण सिंह की पार्टी से टिकट ले लिया. हरिशंकर तिवारी ने जेल से पर्चा भर दिया. चतुर्वेदी ने उनका समर्थन कर दिया और हरिशंकर तिवारी भारी मतों से चुनाव जीत गए. एक बार विधायक बनने के बाद हरिशंकर तिवारी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. और यहीं से माना जाता है कि राजनीति अपराधियों के हाथ का खिलौना हो गई. अपराधी कैसे राजनीति में आए इसे साबित करने के लिए कुछ लोग तर्क भी देते हैं. गाजीपुर के साधू और मकनू सिंह हरिशंकर तिवारी के लिए काम करते थे. जब गाजीपुर लौटते तो बढ़ा-चढ़ाकर अपनी कहानियां बताते. गाजीपुर मुहम्दाबाद के मुख्तार अंसारी इनके साथ हो गए. अपराध में मुख्तार को मुकाम दिखने लगा. जमीन विवाद में साधू सिंह ने बृजेश सिंह के पिता की हत्या करा दी थी। साथ रहने की वजह से मुख्तार बृजेश के निशाने पर आ गए. ऐसे में गोरखपुर-मऊ-गाजीपुर में गैंगवार की कई वारदातें हुईं जिसमें कई निर्दोष भी मारे गए. बाद में मुख्तार विधायक हो गए, बृजेश एमएलसी, उनके भाई चुलबुल सिंह भी एमएलसी रहे. हरिशंकर तिवारी के हाते से निकले अमरमणि त्रिपाठी ने तिवारी के धुर विरोधी वीरेंद्र प्रताप शाही को लक्ष्मीपुर में हरा दिया. इसके बाद शाही फिर कभी विधायक नहीं बन पाए। कहा जाता है कि 1990 तक गोरखपुर और आसपास के इलाकों में गैंगवार में इतनी लाशें गिर चुकी थीं कि लोगों ने गिनती करनी छोड़ दी. 1991 में कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने. जिन्होंने वह जमाना देखा है उन्हें योगी सरकार की एनकाउंटर पॉलिसी कल्याण सिंह की पॉलिसी का विस्तार लगती है. यूपी में पहली सरकार ऐसी थी जिसने पुलिस को खुली छूट दे दी थी. कल्याण सिंह ने हर जिले के बड़े बदमाशों की लिस्ट बनवाई और एनकाउंटर होने लगे. तिवारी और शाही के गुर्गों को भी नुकसान उठाना पड़ा. तिवारी को तकरीबन स्थायित्व मिल चुका था और वीरेंद्र प्रताप शाही के हाथ से बाजी निकल चुकी थी. उन्होंने अपराध से तौबा कर लिया. कुछ दिनों बाद उन्होंने एलान कर दिया कि अब हथियार लेकर भी नहीं चलेंगे.

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