ग़ाज़ीपुर। चिकित्सक कवि डॉ. एमडी सिंह के आवास पर मासिक रचनाकार संगोष्ठी सम्पन्न हुई. संगोष्ठी के विचार सत्र में उपस्थित साहित्यकारों ने रचनात्मकता के विविध आयामों पर चर्चा की. इस संगोष्ठी में एक ऐसे साहित्यिक मंच की आवश्यकता पर बात हुई जो विशुद्ध रूप से साहित्यिक हो. इस मंच के संरक्षक के रूप में डॉ एम डी सिंह का चयन किया गया. उन्होंने इस बात पर बल दिया कि, साहित्यकारों को आपसी संवाद और विमर्श को बढ़ावा देने के लिए वाद की परिधि से बाहर निकलना होगा. मार्क्सवादी, राष्ट्रवादी, समाजवादी इत्यादि सभी खेमों के विचारों का तथ्य, तर्क और विश्लेषण के आधार पर स्वागत होना चाहिए. आलोचना व्यक्ति की नहीं बल्कि साहित्य की होनी चाहिए और वह भी साहित्यिक घेरे में. विचारक डॉ माधव कृष्ण ने इस साहित्यकार संघ की विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका के प्रकाशन के लिए प्रस्ताव रखा ताकि सृजनधर्मिता को अपेक्षित गाम्भीर्य के साथ लिया जा सके, और कवयित्री डॉ रश्मि शाक्या ने इसके स्तर को आरम्भ से उच्च रखने के लिए प्रयास करने की बात की. समकालीन कवि डॉ महेश चन्द्र लाल ने सभी साहित्यकारों से एक कविता लिखने से पूर्व सौ कवितायें पढने का आह्वान किया, और लोकप्रियता के दबाव से बहार निकलने की बात की. सभी साहित्यकारों ने इस बात पर बाल दिया कि साहित्यकार केवल एंटरटेनर नहीं होता, वह सोचने पर विवश भी करता है। काव्य संगोष्ठी में डॉ एम डी सिंह ने कविता पढ़ी, “मनन चिन्तन और आत्मावलोकन के लिए/ बंद गुफाओं में जाना होता है/खो जाना होता है/बहार निकला जो मायावी है/अन्दर भ्रमण कर रहा ऋषि/मस्तिष्क गुफा है/लगे रहिये.” प्रसिद्द कवयित्री डॉ रश्मि शाक्या सभी स्त्रियों से थोपी गयी गुलामी से बाहर निकलने का आह्वान करते हुए कहा, “समंदर न ही कतरा चाहिए था/ बहुत मजबूत जिगरा चाहिए था/ बगावत किस तरह करते भला हम/हमें सोने का पिंजरा चाहिए था.” वरिष्ठ कवि हरिशंकर पाण्डेय जी ने सुमधुर गीत सुनाकर लोगों की वाहवाही लूटी, “कोई ठगकर खुश है कोई ठगे जाने पर/कोई मुख मोड़ रहा कोई है निभाने पर.” समकालीन कविता के सशक्त हस्ताक्षर पूजा राय ने यह कविता सुनकार सबका ध्यान आकृष्ट किया, “ट्रेन की खटपट में मैंने सुना…/ट्रेन का जाना नहीं, बल्कि पीछे छूट गयी स्त्री का रुदन/…ट्रेन के साथ बहुत दूर तक घिसटता चला आता है/और छूट जाता है चुपचाप/जैसे छूट जाती है स्त्री पीछे…मौन”. वरिष्ठ व्यंग्य कवि विजय कुमार मधुरेश जी ने श्रोताओं को हंसाया भी और सोचने पर भी विवश किया, “सबसे अच्छा धंधा है इसीलिए अपनाते हैं/ जगह जगह होता है स्वागत और कमीशन पाते हैं/एक कोठरी बनवाने में कमर टूट गयी घुरहू की/विधायक जी एक साल में दो कोठी बनवाते हैं.” व्यंग्य की धार को पैना करते हुए लगा कि शिक्षक कवि आशुतोष श्रीवास्तव जी ने सबके मैन की बात कह दी,”मैं हूँ तो भाजपाई/पर हर मुश्किल में/काम आता है कोई सपाई या बसपाई/..मेरी व्यथा यही है कि जब चुकाना था इस मिट्टी का कर्ज पाई पाई/इन्होंने हमें बाँट रखा है/भाजपाई सपाई या बसपाई.” युवा शिक्षिका कवयित्री सुश्री रिम्पू सिंह ने एक दार्शनिक कविता पढ़ी, “रेत पुकार रही है/मुझे जाना है उसके साथ खेलने/उस पर कुछ लिखने/जो लिखा था उसे देखने/रेत अपने अन्दर कुछ नहीं लिखती/पर रेत जाल भी नहीं डालती/इसलिए मैं जाऊंगी/क्या तुम चलोगी?”मनोज सिंह यादव ने पिता के प्रेम पर कविता पढ़ते हुए सभी को भावुक कर दिया, “माँ धरती तो पिता आकाश होते हैं/ वे हमारे जीवन का प्रकाश होते हैं/तोड़ लाते हैं वे आसमान से तारे/न कभी हारते न ही हताश होते हैं.” शिक्षिका कवयित्री शालिनी श्रीवास्तव ने समकालीन समस्याओं की ओर ध्यान आकृष्ट किया, “है विकास की अंधी दौड़/मानव में बस लगी है होड़/बालपन मोबाइल कहा गया/खाली मटकी कान्हा ढूँढे/तकती अंखिया रेन निहारे.” विचारक माधव कृष्ण ने एक गीत पढ़ते हुए लोगों से कहा, “अब हम इतने छुई मुई क्यों हैं…/फोन न करते थे संबंधी जब तब घर आते थे/मिलकर हँसते थे रहते थे जो था सब खाते थे/घर छोटा पर बहुत बड़ा था मन का कोना कोना/तब पुआल भी बन जाता था सुन्दर सुखद बिछौना/कौए बतलाते थे कोई आने वाला है/तब से कालचक्र की ठहरी हुई सुई क्यों है… अब हम इतने छुई मुई क्यों हैं…”. वरिष्ठ बैंकर कवि दिनेश चन्द्र शर्मा जी ने ओजपूर्ण कविता पढ़ते हुए लोगों को अपने मन की बात मनन के द्वारा कविता के रूप में अभिव्यक्त करने की बात कही. संगोष्ठी में डॉ माधव कृष्ण और पूजा राय की नयी पुस्तकों के लोकार्पण और व्यंग्यकार आशुतोष श्रीवास्तव जी की आने वाली पुस्तक पर भी चर्चा हुई।