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वाराणसी: नाटकी की प्रस्तुहति में सक्रिय रहती है पांचो इंद्रियां- प्रोफेसर कुमकुमधर

वाराणसी। नृत्य अनुभाग एवं शारीरिक शिक्षा अनुभाग, महिला महाविद्यालय विद्यालय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में एवं प्रो,. लयलीना भट्ट के संयोजकत्व में दिनांक 22/10/2024 से 23/10/2024 तक द्विदिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया; जिसका विषय था : ‘कला जगत और महिलाएँ : अतीत, वर्तमान एवं भविष्य। आज दिनांक 23/10/2024 को संगोष्ठी का दूसरा दिन है। सभी विद्वानों एवं विदुषियों ने महामना मदनमोहन मालवीय जी की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया। पंचम सत्र का विषय था : भारतीय रंगमंच में महिलाओं का योगदान : अतीत, वर्तमान एवं भविष्य।’ सत्र की अध्यक्षता कर रहीं प्रसिद्ध लास्य कलाकार लच्छू महाराज की वरिष्ठ शिष्या, संगीत नाटक अकादमी और यश सम्मान से सम्मानित प्रो. कुमकुमधर ने बताया कि नाटक की प्रस्तुति में पांचों इंद्रियां सक्रिय रहते हैं और सारे अंग अलग अलग समय में अभिनय की मुद्रा में उपस्थित रहते हैं। अभिनय नाटक का भी होता है, नृत्य का भी होता है, आकाशवाणी का भी होता है। नृत्य में लयात्मक आंगिक अभिनय मुख्य होता है और नाटक में वाचिक अभिनय मुख्य होता है। आकाशवाणी में वाचिकबिंबधर्मी अभिनय साकार होता है। संगीत नाट्य अकादमी ने नाट्य प्रतियोगिता के माध्यम से सर्वश्रेष्ठ महिला कलाकारों को पुरस्कृत कर पुनर्बलन प्रदान किया जाता रहा है। बतौर विशिष्ट वक्ता वरिष्ठ रंगकर्मी डॉ. गोपाल स्वरूप सिन्हा ने भारतीय रंगमंच के क्षेत्र में महिला कलाकारों का योगदान पर बोलते हुए कहा कि इस विषय पर आज तक समेकित रूप में विचार नहीं किया गया है, हालांकि कुछ विशेष महिला रंगकर्मी या अभिनेत्री पर यदा कदा चर्चा हो जाती है। आधुनिक रंगमंच का इतिहास लगभग 180 सालों का है। इन्होंने बताया कि जब व्यावसायिक नाट्यमंडली का विकास हुआ उस समय अभिनय को हिकारत की दृश्य देखा जाता था। पुरुषों को मुश्किल थी नाटक में किरदार निभाने में तो महिलाओं की बात तो दूर की कौड़ी ठहरी। उस समय स्त्रियों की भूमिका भी पुरुष पात्र ही निभाया करते थे। जो महिलाएं इस क्षेत्र में आ भी जाती थीं उनके चरित्र पर संदेह किया जाता है। पहले पहल जब अभिनय से महिलाएं जुड़ी वे संभ्रांत वर्ग से न होकर निम्न वर्ग से ताल्लुकात रखती थीं। ‘इंडियन पीपल थियेटर सिचुएशन’ के स्थापना के पश्चात् कुछ अभिजात्य वर्ग की महिलाएं पदार्पण करती हैं। शौकिया रंगमंच नाट्य क्षेत्र में रंगमंच की जान है, इसके माध्यम से आम जनता इस ओर आकर्षित हुए। व्यावसायिक रंगमंच में महिलाओं को काम करने में अड़चन नहीं हैं क्योंकि उसमें उनको पगार मिलता था जबकि शौकिया रंगमंच में नहीं। ज़्यादातर महिलाएं पारिवारिक और गृहस्थी के कारणों से रंगमंच के क्षेत्र में निरंतरता नहीं बरत पाती थी, दूसरे गार्जियन को चिंता थी कि लड़कियां भिन्न भिन्न जगहों पर जाएंगी कैसे? रोमा कृष्ण जो एक नाटक की ( ध्रुवस्वामिनी) की अभिनेत्री बनकर रह गईं। रंगमंच क्षेत्र पुरुष प्रधान रहा। सन् पचास के बाद स्त्रियों की भूमिका बढ़ी। प्रगतिशील लेखक संघ के साहित्यकारों नाटककारों की मुख्य भूमिका रही। उन्होंने अपने साथ अपनी पत्नियों को इसमें शामिल किया,जो अभिजात्य वर्ग से संबंधित थीं। राष्ट्रीय नाट्य इप्टा की मुख्य भूमिका रही। जोहरा सैगल, रेखा जैन, शौकत अली, तरला मेहता, दीना पाठक, नाजिरा बब्बर, हेमानी शिवपुरी ऐसी ही महिलाएं थीं। महिलाएं निर्देशक के रूप में भी ख़ुद को स्थापित कर चुकी हैं। इन्होंने प्रसिद्ध नर्तकी शांता गांधी का ज़िक्र किया किया। उन्होंने बताया कि उन्होंने भरत के नाट्यशास्त्र का अध्ययन कर उस समय के पुरुष सत्ता को चुनौती दी। शीला भाटिया ‘पंजाबी ओपेरा ’किया करती थी। नाटक में महिला संगीतकार बहुत कम जुड़ी हैं। रूप सज्जा में अभी भी पुरुषों का आधिपत्य है। महिला आती भी हैं तो बतौर असिस्टेंट आती हैं। लाइट डिज़ाइन में भी कम महिलाएं दिखाई देती हैं। NSD की चेयर पर्सन श्रीमती इंदिरा गांधी जी थी। A. I. R की ड्रामा आर्टिस्ट सुश्री रूपाली चंद्रा ने भगवतीचरण वर्मा की कहानी ‘प्रायश्चित’ का आंगिक और वाचिक अभिनय किया। रामू की मां, रामू की दादी, पंडित जी सभी पात्रों की वाचिक एवं आंगिक अभिनय उन्होंने बख़ूबी किया। दर्शक अचंभित थे एक साथ अलग अलग आवाज़, भिन्न भिन्न मुद्रा देखने योग्य थी।इतना ही  नहीं  धर्मवीर भारतीय की रचना ‘अंधायुग’ में गांधारी द्वारा श्रीकृष्ण को दिए गए श्राप का वाचिक और आंगिक अभिनय करते हुए उस नाटक में वर्णित दृश्य को दर्शकों एवं श्रोताओं के समक्ष साकार कर दिया। श्री के. पी. सक्सेना की रचना ‘लखनऊ के कुलचे बाबू’ (2013) की भी प्रस्तुति की। इस सत्र का संचालन आयोजन सचिव डॉ. रुक्मणि जायसवाल कर रहीं थी। प्रतिवेदन : कु. रोशनी, शोध छात्रा, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय।षष्ठ सत्र का विषय था : ‘स्त्री की कला : आत्मसंभवा रूप एवं प्रतिरूप’ सत्राध्यक्ष समाजशास्त्र की पूर्व आचार्या प्रो. शशिरानी जायसवाल ने कहा कि यदि कहीं सौंदर्यात्मक तत्व हैं समझ लीजिए वहाँ स्त्री है। पुरुषों ने साम दाम दंड भेद के जरिए मातृसत्ता को पितृसत्ता में तब्दील कर दिया। स्त्रियों को प्रकृति की शक्ति में स्वयं सचेत होना पड़ेगा। लगभग सारे रिचुअल पुरुषों ने गढ़े हैं। कितने पुरुष स्त्रियों के लिए व्रत धारण करते हैं। आज कला का ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं जिसमें स्त्रियाँ परचम नहीं लहरा रही हों। विशिष्ट वक्ता के रूप में महिला महाविद्यालय की पूर्व प्राचार्या प्रो. चंद्रकला त्रिपाठी कहती हैं कि कला सत्य भी है, कला स्त्री भी है। कला स्त्री को उसके सृजनात्मक क्षमता में परिभाषित करती है। मनुष्यता का इतिहास उसी दिन शुरू होता है जिस दिन कला का जन्म होता है। आदिम प्राकृतिक समाजों से सुसंस्कृत समाज में यदि अंतर देखना हो तो , उस समय मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं था, वे हिंसात्मक थे, पशुवत थे, कोई नैतिक विधान नहीं था, संस्कृति नहीं थी। धीरे- धीरे संस्कृति नहीं थी, सेक्स था। धीरे- धीरे संस्कृति ने हिंसा को वीरता में बदला और सेक्स को प्रेम में। एक मिथक है कि कामदेव का जो शारीरिक रूप था उसे शिव के तीसरे नेत्र ने भस्म कर उसे स्थूल से सूक्ष्म स्वरूप प्रदान किया। संपूर्ण मानवजाति की अमरता, पीढ़ियों की निरंतरता स्त्री से संभव है, कला से संभव है। एक कथन है, “मैं रचता हूं क्योंकि मैं हूं”। कालकार संस्कार के परिपाटी बद्ध ढाँचे में दखल देता है, इसीलिए कला साधना है, कला आसान चीज़ नहीं है। स्त्री के लिए कला उसके ‘आत्मसंभवता’ की खोज है, यह उसकी मुक्ति है। कला से मुक्ति का स्पेस बनता है। अंडाल घर जाने की बात करती हैं, अक्क महादेवी घर जाने की बात करती हैं, यह कौन सा घर है, यह घर मुक्ति का घर है। कला में यदि जलना है तो मरने का साहस लेकर जलना है। कला में जो प्रकृत है वह ललित हो जाता है, जो ललित है वह कला है। आरंभ में पूरा का पूरा नृतत्वशास्त्र कहता है कि हमारे समाज में प्रारंभ में मातृसत्ता थी। यह एक तथ्य है कि मातृसत्तात्मक समाज से पितृसत्तात्मक समाज में रूपांतरण की प्रक्रिया आसान नहीं थी। सीमाएँ बनी, विधि निषेध आएँ और कहा गया कि जर जोरू और जमीन पर पुरुषों का नियंत्रण तो होना ही चाहिए। समाज में जेंडर विभेद इतना वीभत्स है कि एक पुरुष तेज है तो वह उसकी योग्यता है और यदि एक स्त्री तेज है तो वह उसका अवगुण है, इसके जरिए वह समाज में लांछित है। स्त्री को समाज में असूर्यंपश्या बना दिया गया क्योंकि सूर्य भी तो पुरुष है और तेज से युक्त है। इन विधि निषेधों के जरिए कला और स्त्री का संबंध जटिल बनता गया।आम्रपाली जब अतीव सुंदर हुई तो वह जनपद के ऊपर आ गई। राजा को भय था यदि वह एक की हो गई तो घमासान मच जाएगा; आम्रपाली को अंततः नगरवधू बनना पड़ा। 20 वीं शताब्दी के चित्रकारों में बड़ा नाम है अमृता शेरगिल का। अमृता प्रकृति से टक्कर लेती हुई चटक रंगों के स्थान पर फीके रंगों का इस्तेमाल करती थीं तब भारतीय चित्रकारों का कहना था कि अमृता जी बड़ा उदास चित्र बनाती है। अमेरिकी नर्तक ईसा डोरा डंकन ने बैले नृत्य की कृत्रिमता को तोड़ा। इसी दरम्यान अमेठी से पधारी डॉ. वर्षा रानी की पुस्तक ‘समकालीन महिला उपन्यासकारों का सामाजिक चिंतन’ ( सन् 1975 से 2000) का लोकार्पण किया गया। डॉ. वर्षा रानी ने इस पुस्तक के विषय में बताते हुए कहती हैं कि उपन्यास समकालीन सामाजिक चिंतन को अभिव्यक्त करने वाली सशक्त विधा है। इस चिंतन को महिला उपन्यासकारों ने नया आयाम दिया है।सत्र संचालन हिंदी अनुभाग, महिला महाविद्यालय के सहायक आचार्य डॉ. हरीश कुमार कर रहे थे। डॉ. हरीश कुमार बताते हैं कि स्त्री जब समाज के निर्माता के रूप में कार्य कर रही होती है तो असल में वह कला की साधिका होती है। पुरुष यदि खाना पकाए तो उसे कलात्मक कार्य माना जाता है और स्त्री यदि पकाए तो वह उसका स्वाभाविक कार्य है, ऐसा माना जाता है, यह विभेद क्यों है ? इस पर प्रश्न उठाया गया। प्रतिवेदन: कु. रोशनी, शोध छात्रा, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय।

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