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दिलों की धड़कन खामोश गाज़िपुरी…

उबैदुर्रहमान सिद्दीकी

शहर के मुहल्ला सट्टी मस्जिद में खामोश ग़ाज़ीपुरी के घर का सामने खड़ा हूँ. बचपन से अपने कमरे में बैठे कभी बीड़ी पीते देखता, कभी गुनगुनाते सुनता या फिर किसी गजल को सजाने संवारने में खामोश पर नजर पड़ती. यह हमारे जनपद का एक शलाखा मगर अभागा शायर था.

खामोश गाजीपुरी का जन्म 1932 में हुआ लेकिन 1945 से 1980 तक हिंदुस्तान के कवि सम्मेलनों एवं मुशायरों की धड़कन बने रहे. उनके गजल रचना की विशेषता रहती कि ऐसे शब्दों का चयन करते कि रिक्शा चालक भी समझ ले और इसी कारण आम लोगो के शायर बनकर उभरे. उन्हें जो लोकप्रियता मिली, गाजीपुर के किसी अन्य शायरों के नसीब में नहीं आई. इकलौते शायर थे जो जनपद गाजीपुर को मुशायरे की दुनिया में स्थापित किया. खामोश ग़ाज़ीपुरी का एक शेर है :

जब मुझको न पाएगा पैमाना पुकारेगी

साकी न सही लेकिन मयखाना पुकारेगा

अफसोस नहीं मुझको कुछ शमा  के बुझने का

ग़म यह है कि अब किसको परवाना पुकारेगा

मृत्युपरांत खामोश को जो इज्जत मिलनी चाहिए थी, वह न मिल सकी. शहर के लोग इतनी जल्दी उन्हें भुला देंगे, इसका अंदाजा नहीं था. उनके उस्ताद कलीम गाजीपुरी ने एक बार मुझे बताया था कि खामोश कोई बड़े बाप के बेटे नहीं थे. मेहनतकश मां बाप के बेटे थे. मैने उन्हें उंगली पकड़ कर 1939/40 में चश्मय रहमत ओरिएंटल कालेज ले आता और लेजाया करता था. वह एक मासूम हंसता खेलता बच्चा, उसको कहां संसार के दाव पेंच मालूम कि यह दुनिया बड़ी क्रूर होगी. इतनी तंगी की फ़ाक़ाकशी भी करनी पड़ेगी. खामोश को आखिर में यह कहना पड़ा :

जब बज्मे मुहब्बत में तकसीम हुआ आंसू

फूलों को मिली शबनम आंखो को मिला आंसू

मुश्किल ही से होती है तकमीले मुहब्बत की

जब दर्द हुआ कामिल तब जाके बना आंसू

खामोश अब आए हैं वह दामने दिल लेकर

जब इश्क के आंखो में कुछ भी न रहा आंसू

 

खामोश साहब हमेशा उलझनों से झूझते रहे और आगे बढ़ते रहे लेकिन उनके जीवन में एक ऐसा लम्हा भी आया जब उन्हें बेरोजगार होना पड़ा. धन अर्जन के लिए एकमात्र सहारा कवि सम्मेलन तथा मुशायरे थे. कम समय में उन्हें हिन्दुस्तान के बड़े कवि सम्मेलनों और मुशायरों के मंचों पर अग्रिम पंक्तियों के शायरों में कैफ़ी आज़मी, साहिर लुधियानवी, शकील बदायूंनी, मजरूह सुल्तानपुरी जिनकी तूती बोलती थी, साथ लाखड़ा किया.

खामोश साहब ने जिस शिक्षा केंद्र से शिक्षा ग्रहण की थी, वहां अपनी काबिलियत के बिना पर प्राइमरी सेक्शन में उस्ताद ( 1953 – 56 ) नियुक्त हो गए, जहां आप बच्चों को साहित्य पढाते थे. इसके अलावा साथ साथ शायरी के शौक़ को भी पूरा करते रहे. स्थानीय तथा अन्य शहरों के मुशायरों मेंअपनी विशेष लय में जब ग़ज़लें पढ़ते , तो लगता था जैसे तानसेन या बैजू बावरा के कंठ उनमें समा गए हों. पूरा पंडाल वाह वाह से गूंज उठता था. पढ़ने का उनका अपना एक अंदाज था. मैने भी उन्हें 1978/79 तथा 1980 में आयोजित गाजीपुर के मुशायरों में सुना था.

आप लोगो को फिल्म मुग़ले आज़म का यह गाना याद होगा ” हमे काश तुमसे मुहब्बत न होती … कहानी हमारी हकीकत न होती ” दरअसल इसके रचयिता शकील बदायूंनी न होकर, यह पूरी ग़ज़ल खामोश ग़ाज़ीपुरी की है,और दिल्ली की मशहूर उर्दू पत्रिका ” शमा ” के सितम्बर अंक में छपी था:

हमें काश तुम से मुहब्बत न होती

कहानी हमारी हक़ीकत न होती

न दिल तुम को देते न मजबूर होते

न दुनिया न दुनिया के दस्तूर होते

क़यामत से पहले क़यामत न होती

हमीं बढ़ गये इश्क़ में हद से आगे

ज़माने ने ठोकर लगायी तो जागे

अगर मर भी जाते तो हैरत न होती

तुम्हीं फूँक देते नशेमन हमारा

मुहब्बत पे अहसान होता तुम्हारा

ज़माने से कोइ शिकायत न होती

 

खामोश साहब की एक प्रेमिका जिसे दिल दे बैठे थे. एक दिन उन्हें पता चला कि शहर के एक धनाढ्य व्यपारी से निकाह कर लिया, जिससे उनका दिल टूट सा गया, तब उन्होंने यह ग़ज़ल कही थी. कम ही लोगों को जानकारी होगी कि खामोश के लाख मन करने पर, उनके परम मित्रों में वकील इशरत जाफरी, उस्ताद फारसी मौलवी फय्याज सिद्दीकी, खलिश ग़ाज़ीपुरी और भूरे बाबू आदि लोगो ने शकील बदायूंनी को रेजिस्टर्ड डाक से मुंबई एक नोटिस भेजा. नोटिस पाते ही शकील बदायूंनी ने अपने दो आदमियों को मुंबई से गाजीपुर भेजा जो आकर खामोश से मिले और उन्हें 3500 रुपिया एक बन्द लिफाफा में दिया, जिसमे अपनी दोस्ती का हवाला देते हुए अपने पत्र में  लिखा कि “मेरी इज़्ज़त तुम चाहे उछाल दो या बदनामी से मुझे बचा लो, अब तुम्हारे हाथ मे है, चूंकि यह गजल तुम्हारी थी लेकिन फिल्म मुगल आजम के गाने के डिमांड के मुताबिक थी, इसलिए इसको शामिल कर किया”खामोश बहुत नेकदिल और सज्जन शायर थे. जवाब दिया कि मैंने लाख अपने मित्रों को मना किया, लेकिन न जाने कब नोटिस बना कर भेज दिया, मेरी जानकारी में नहीं है. आप परेशान न हों”.

1962 में हिंद चीन युद्ध के समय लाल किला दिल्ली में मुशायरा का एक आयोजन हुआ जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, लता मंगेशकर के अलावा भारत के नामचीन कवियों और शायर भी सम्मिलित हुए थे. वहां खामोश गाजीपुरी ने जब अपनी यह नज़्म पढ़ी तो लोग जोश से उठ खड़े हुए तथा एक एक बंद को कई बार पढ़वाया:

अजमत ताजो अजंता के निगहबान हैं हम

न हिले जो किसी ताकत से वह चट्टान है हम

न उलझ हमसे की ठहरा हुआ तूफान हैं हम

जो भी तूफान से उलझता है कुचल जाता है

जो भी चट्टान से लड़ता है मसल जाता है

तू भी टकराएगा हमसे मसल जाएगा

जंग की आग से खेलेगा तो जल जाएगा

सारा कस बल तेरी फौजों का निकल जाएगा

तुझको गुलशन की कोई शाख नहीं दे सकते

जान दे सकते हैं लद्दाख नहीं दे सकते हैं

खामोश के उस्ताद कलीम गाजीपुरी बताते है कि एक दिन मदरसा की कमेटी का फैसला उनपर वज्र बनकर ऐसा टूटा जिसके कारण उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. आरोप था कि आप बच्चों के आदर्श प्रतीक नही रहे क्योंकि मयनोशी दीनी मदरसा के लिए हराम है. इस फरमान से उनकी ज़िन्दगी बिखर गई. रोजगार का एकमात्र सहारा मुशायरा था. बेरोजगार होकर, खामोश ऐसे फिर टूटे कि वह सम्भल न सके. इस बीच उनकी पत्नी से तलाक भी हो गया.

 

हास्यस्पद यह कि मदरसे से उन्हें कहकर निकाला गया था कि तुम मयनोश हो, उसी जगह आयोजित मुशायरों में खुल कर शराब की बोतलें खुलतीं थी, जमकर पी जाती और खामोश साहब शराब में डूबे हुए झूम कर गजल सरा होते:

लोगो की फितरत क्या कहिए अब मुझको शराबी कहते हैं

हालांकि मुझे मयखाने की खुद राह दिखाई लोगों ने

जब खाके नशेमन भी न रही तब टूट के बरसा पानी भी

उस वक्त कहां थी काली घटा जब आग लगाई लोगों ने

 

खामोश साहब की कई ऐसी गजलें है जो हिंद पाक के बंटवारे से पहले लोकप्रिय हो चुकी थी और संसार के बेहतरीन गजल गायकों ने अपने अपने सुर दिए है जैसे :

उम्र जलवों में बसर हो यह जरूरी तो नहीं

हर शबे ग़म की सहर हो यह जरूरी तो नहीं

सबकी नजरों में हो साकी यह जरूरी है मगर

सब पे साकी की नज़र हो यह जरूरी तो नहीं

नींद तो दर्द के बिस्तर पे भी आ सकती है

उनकी आगोश में सर हो यह जरूरी तो नहीं

 

जगजीत सिंह ने खामोश की इस गजल को गाकर अमर कर दिया:

देर व हरम में बसने वालों

मायखवारों में फूट न डालो

आरिज लब सादा रहने दो

ताजमहल पे रंग न डालो

 

एक बात तो थी कि वह बड़े खुद्दार शायर थे. कभी हाथ नही फैलाया. लोग उनकी आर्थिक मदद भी करनी चाही, उन्हें लेने से इनकार कर देते. अफसोस तो यह है कि खामोश साहब को जो सम्मान मिलना चाहिए था,वे अबतक न दे सके. हमे अपने साहित्यकारों एवम रचनाकारों को सम्मान भी नही देने आता. मरते मरते खामोश साहब कह गये थे:

 

मैं वह सूरज हूं न डूबेगी कभी जिसकी किरण

रात होगी तो सितारों में बिखर जाऊंगा

 

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