उबैदुर्रहमान सिद्दीकी
गाजीपुर। गाज़ीपुर की दीवानी अदालत मे सर सैयद अहमद खान 26 मई 1862 मे सब-जज होकर आये. उनके साथ उनके दो बेटे सैयद अहमद, सैयद महमूद और एक भतीजा था. पत्नी का पहले ही देहांत हो चुका था, इसलिए अपने घरेलु कामकाज के लिए सर सैयद ने सैदपुर के झज्जू नामक लड़के को नौकरी पर रखा जो बच्चों की देखभाल किया करता. झज्जू इतना वफादार नौकर था कि अलीगढ मे भी,सर सैयद के अंतिम लम्हे 1898 तक साथ रहा। अपने प्रवास के दिनों, सर सैयद मोहल्ला मियांपुरा की लाल कोठी जो मशहूर वकील शाह बदरे आलम साहब की थीं,रहते थे. उस समय दीवानी अदालत मे अदालती काम कम था, तो स्थानीय लोगो के मशवरे से उन्होंने मार्च 1863 मे एक ऐसे स्कूल की स्थापना की जिसमे अंग्रेजी, उर्दू, फ़ारसी, अरबी तथा हिंदी संस्कृत की शिक्षा दी जासके. जनपद मे प्राइमरी तक की तालीम दिए जाने की अच्छी व्यवस्था तो थीं लेकिन उच्च शिक्षा से आम बच्चे वंचित थे. जमींदार तथा उच्च कुल तबके के अधिकतर बच्चे जर्मन मिशन हाई स्कूल मे दाखिला तो आसानी से पाजाते. लेकिन आम लोगों की रसाई वहां तक नही थीं. इसपर, मुसलमानो से अधिक हिन्दू अवाम ने सर सैयद की जमीन से लेकर पैसे से मदद की ताकि एक अच्छा स्कूल खोला जा सके. हबीबुल्लाह जो गाज़ीपुर की अदालत मे सर सैयद की तरह सब जज के ओहदे पर थे, उनके धुर विरोधियों मे एक थे,के उकसाने पर कि कुछ हिन्दू, मुस्लमान और शहर के पादरी कुछ ईसाईयों के साथ सडक पर एक जलूस की शक्ल मे प्रदर्शन करने लगे, जब विक्टोरिया स्कूल की नीव रखी जा रही थीं. स्कूल खोलने के लिए सर सैयद को लगभग 80 हज़ार रुपये चंदा देने के लिए स्थानीय लोगों ने नाम लिखवाए थे, लेकिन ऐन समय पर उन्हें धोखा दिया और बड़ी संख्या मे लोगों ने चंदा न देकर उन्हें निराश किया . मात्र 17 हज़ार ही रूपया इकट्ठा हो पाया, जिससे विकटोरिया हाई स्कूल की ईमारत बनी. सर सैयद अहमद को इसपर अफ़सोस भी हुआ और स्कूल की बुनियाद रखते समय, बड़े भारी मन से, उन्होंने अपने उद्बोधन मे कहा कि “इस स्कूल की कमेटी के सेक्रेटरी लाला शिव बालक सिंह (वकील ) ने बताया है कि रजिस्टर पर सत्तर हजार तीन सौ रुपये तक चंदे के हस्ताक्षर हुए है बल्कि स्कूल बनाने के लिए एस्टीमेट लगभग अस्सी हज़ार रुपये का था, लेकिन अफ़सोस की बात है कि अबतक कुल 17 हजार मिले है. कहीं ऐसा ना हो इस नेक काम के लिए तुमने जो बीड़ा उठाया है, ख़राब अंजाम तक ना पहुँच जावे. ऐ जिला के तमाम लोगो, विशेषकर रईसों पर इस कारण कहीं बदनामी का न मिटने वाला धब्बा न लग जावे”. अंत मे ऐसा ही हुआ कि यहाँ के लोगों ने चंदा ना देकर सर सैयद को अत्यंत निराश किया. बल्कि यहाँ के लोगो मे यह झूठा भ्रम फैलाया कि सर सैयद तो गाज़ीपुर मे यूनिवर्सिटी बनाना चाहते थे? जहाँ के लोगों ने नाम लिखवाकर पैसे न दिए हो,वहां क्यूंकर यूनिवर्सिटी बनाने का ख्वाब देखते? सर सैयद अहमद के किसी पत्र, किसी स्पीच या फिर किसी लेख से पता चलता है कि गाज़ीपुर मे कोई यूनिवर्सिटी खोलने वाले थे बल्कि विक्टोरिया स्कूल के नाम पर एक बड़ा कॉलेज होने का स्वप्न देखा था. इसी नतीजे की बुनियाद पर उन्होंने विक्टोरिया स्कूल का संरक्षक रामनगर के राजा सर देव नारायण सिंह, सेक्रेटरी लाला शिव बालक सिंह तथा बाबू लक्मण दास को कमेटी का खजाँची बनाया, ताकि उनके ताबदले के बाद किसी तरह का व्यवधान उत्पन्न न होने पाए। गाज़ीपुर मे सर सैयद का एक दूसरा अहम् काम 9 जनवरी 1864 को साइंटिफिक सोसाइटी की स्थापना था. पहली बैठक जनवरी 1864 में गाजीपुर के तत्कालीन कलेक्टर ए बी सापते की अध्यक्षता में हुई थी, बल्कि तबादला होने से पूर्व दो बार कमेटी की बैठक हो चुकी थीं. सोसायटी का उद्देश्य भारत में हिन्दू मुस्लिम समुदाय में उदार, आधुनिक शिक्षा और पश्चिमी वैज्ञानिक ज्ञान को बढ़ावा देना था. जिला से 22 हिन्दू तथा 20 मुस्लिम इसके सदस्य बने. सोसाइटी के तहत अभी चार यूरोपिय पुस्तकों का हो पाया था, इसी बीच उनका तबादला अप्रैल 1864 को अलीगढ हो गया। सर सैयद के देहांतोपरांत 1988, अलीगढ कॉलेज कमेटी मे यूनिवर्सिटी बनाने का विचार आया तो नवाब वज़िरुल मुल्क के नेतृत्व मे सात लोग हमारे घर ( लेखक के घर समद मंज़िल, मुहल्ला मछरहट्टा) मे चंदा हेतु रुके तथा एक भव्य आयोजन जिसमे जिला के नामचीन स्थानीय लोगो के अतिरिक्त ब्रिटिश अधिकारी भी शामिल हुए. यहाँ यूनिवर्सिटी के बनाने हेतु तीन हजार रुपये जमा हुए. तत्कालीन चश्माय रहमत ओरिएण्टल कॉलेज के प्रिंसिपल मौलाना शमशाद साहब फिरंगीमहली ने एक प्रशस्तिपत्र प्रस्तुत किया था जो इस तरह से था :
बांधकर यूनिवर्सिटी की धुन
फिरते है शहर शहर फरहत नाक
ऐ खुशा बख्त शहर गाज़ीपुर
कि है यह भी मक़ाम इस्तदराक
आज खुश होंगी रूह सर सैयद
अपने प्यारे से देख यह तपाक
सई (pryas) अब्दुल समद का है यह असर
जमा है इस जगह जो खुश पोशाक
सर सैयद अहमद खान गाज़ीपुर मे दो वर्ष जो जो काम किये थे, उन्ही पर मेरे शोधपत्र को जो 600 पृष्टों पर आधारित है, उसे अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी ने प्रकाशित किया है।